भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमारे दरमियाँ जो फासला है / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
Kavita Kosh से
हमारे दरमियाँ जो फासला है
किसी को क्या पता किसकी खता है
हवाएं सिरफिरी क्यूँ हो चली हैं
ये मौसम हमसे खुद ही पूछता है
रवानी थम गई है इन रगो में
हकीकत यह लहू भी जानता है
अभी आगाज़ है दौर-ए-फना का
कयामत कब हो किसको क्या पता है
छुपा लो लाख तुम आमाल "आज़र"
भला उसकी नज़र से क्या छुपा है