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हमारे दोष / मोहन अम्बर

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सुख से बनती नहीं हमारी दुख का इसमें दोष नहीं कुछ,
सच तो केवल एक बात है हमसे ज़िया नहीं जाता है।
अंधकार में ठोकर खाकर हाथ शीश पर टिक जाता है,
और भाग्य व्यापारी के घर यों मनु-ईश्वर बिक जाता है,
फिर भी पथारम्भ करने पर इतना याद नहीं रखता है,
खुद ही ले जाना पड़ता है चल कर "दिया" नहीं जाता है,
हमसे ज़िया नहीं जाता है।

गलती करके पछता लेना यह भी पुुण्य कहा जाता है,
लेकिन विद्वानों का यह मत यहाँ नहीं पूरा खाता है,
मन कपड़ा ऐसा कपड़ा है जिस पर यह सिद्धांत अडिग है,
उसे फाड़ना बहुत सरल है लेकिन सिया नहीं जाता है,
हमसे ज़िया नहीं जाता है।

उग्रसेन-सच क़ैद नहीं है, हम उस कंस-काल के वासी,
एक नहीं अब कोटि कृष्ण हैं फिर भी घटती नहीं उदासी,
हम सरपंच चुने जायें या न्यायाधीश गुने जायें पर,
है अपराध अन्नदाता तो निर्णय किया नहीं जाता है,
हमसे ज़िया नहीं जाता है।

बटवारे के नाम आजकल बटवारा ऐसा होता है,
भूखे पेट वही सोता है जो दिनभर फसलें बोता है,
इस बटवारे ने संशय को इतना शक्तिवान कर डाला,
बिन सोचे समझे इस युग में अमृत पिया नहीं जाता है,
हमसे ज़िया नहीं जाता है।