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हमारे प्रेम का सिलसिला / अरविन्द श्रीवास्तव
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यह वसंत के आगमन की सुगबुगाहट थी
कि घने कोहरे के बीच
उम्मीद के आंगन में
सूर्य ने दी थी दस्तक
कि अभी-अभी नर्म लिहाफ ने
छोड़ा था दामन
एक देह अकुलाहट भरी
दूसरे देह में समावेश को थी आतुर
ऋतुराज के समक्ष नतमस्तक
राजर्षि सत्ता सभी धारदार हथियार
व्याकुलता और बेचैनी के साथ
यह जानते हुए कि दहकेगा गुलमोहर
गृष्म की प्रचंड वेग में
झुलसता वसंत सिसकेगा ज़ार-ज़ार
चोंच भर पानी के साथ चिड़िया
मीलों करेगी सफर तय
सयाना समुद्र उधारी बंद कर चुका होगा
तब कहीं जाकर तृषित धरती पर
टपकेगी बूंदे पावस की
झमाझम बारिश में एक बार फ़िर
भींगेंगे हम
और इसी तरह चलता रहेगा
हमारे प्रेम का सिलसिला !