भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमारे बन्धु ! / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रंगों के झरनों में बह गए हमारे बन्धु !
कहना था और, और कह गए हमारे बन्धु !

चिकने, चालाक, घाघ
लब्ज़ इश्तहारों के
गुलदारी होठों पर
मन्त्र बेसहारों के

गार में इकाई की चर गए हमारे बन्धु !
कैसे-कैसे कमाल कर गए हमारे बन्धु !

खुट्टल हैं, छुट्टल हैं
ताम्बे के सिक्के हैं
बारह में बादशाह
बावन में इक्के हैं

अगर कहीं कीचड़ में सन गए हमारे बन्धु !
कितने-कितने भोले बन गए हमारे बन्धु !