भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमारे वे दिन बीत गये / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


हमारे वे दिन बीत गये
एक-एककर जैसे वे मधु के घट रीत गये
 
वे चिर-पोषित कीर हमारे
श्वेत-श्याम निज पंख पसारे
चुन-चुनकर जीवन-कण सारे
गाते गीत गये

पृष्ठ आयु के वे अति सुन्दर
मिटा दिए किसने लिख-लिखकर!
अब न मिलेंगे किसी  मोड़ पर 
जो प्रिय मीत गये
 
प्रेमभरे प्राणों की लय से 
राग उठे थे कैसे-कैसे 
वे सब दाँव स्वप्न में जैसे
हम थे जीत गये
 
हमारे वे दिन बीत गये
एक-एककर जैसे वे मधु के घट रीत गये