भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमारे शहर का मौसम बदल गया कैसे / कुमार नयन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमारे शहर का मौसम बदल गया कैसे
हरेक शख्स मशीनों में ढल गया कैसे।

ग़लत नहीं थी मिरी चाल कोई साज़िश थी
ज़मीन ख़ुश्क थी तो मैं फिसल गया कैसे।

लिपट के आज जो मुझसे किसी ने चूम लिया
मैं सोच में हूँ कि पत्थर पिघल गया कैसे।

कभी किसी ने नहीं जिसपे कुछ इनायत की
वो शख्स सब ही से आगे निकल गया कैसे।

कोई ज़रूर ही रहबर था इस बग़ावत में
ये इंक़लाब फिर इस बार टल गया कैसे।

ये अब्र बरसा तो था फ़सले-गुल की ख़ातिर ही
मगर हमारा नशेमन ये जल गया कैसे।

हकों की मांग थी मज़हब के दे दिये नारे
हरेक शख्स इसी पर बहल गया कैसे।