भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमारे समय का विज्ञान – एक / प्रदीप मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


हमारे समय का विज्ञान – एक


सदियों तक सूरज डूबने के बाद
रोशनी चाँदनी और चाँद से आती रही
अमावस्या की काली रात में भी
रोशनी होती थी
जुगनुओं की पूंछ से चिपकी
सबकुछ दिखाई देता था
अँधेरे में भी

अचानक एक दिन मनुष्यों ने
आग पैदा कर ली
और लगा कि आग ने
अँधेरे को जलाकर राख कर दिया

फिर लट्टुओं ने तो
सूरज की जरूरत ही खत्म कर दी
अंधेरे के खिलाफ़
विज्ञान की यह
सबसे बड़ी जीत थी

विज्ञान को अपने हृदय से चिपकाए
हम ललकार रहे थे अँधेरे को
और वह दुम दबाए खिसक गया था
पृथ्वी के बाहर

पृथ्वी के छोर पर खड़े हम
तल्लीन थे विजय उत्सव में
और विज्ञान हमारे हाथ से छूट कर गिर गया
अंतरिक्ष में कहीं
छूटकर गिर गया या उसका अपहरण हो गया
इस पहेली को इतिहास के संग्रहालय में
रख दिया गया है सुरक्षित

यह भी सुनिश्चित कर दिया गया है कि
विकास की डुगडुगी पर वे ही नाच सकते हैं
जिनके वर्तमान और भविष्य का कोई
इतिहास नहीं होगा।