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हमारे समय की औरतें / मुक्ता
Kavita Kosh से
वह औरत चौखट से बाहर निकली...
उसके घूँघट हटाते ही तड़तड़ाईं थीं तमाम बिजलियाँ
बिजलियों की ऊर्जा से उसने बढ़ाये थे कदम निर्मम रास्तों की ओर
उसके सौंदर्य का सम्मोहन शनै: शनै: प्रवेश करता है रगों में
औरत के हाथ में है इकतारा
अदृश्य इकतारा, जिसके तार बजते रहतें हैं चहुं ओर
उसके श्रम के स्पंदन से ध्वनियाँ दिशाएँ पाती हैं
औरत की उँगलियाँ कमजोर होने लगी हैं असाध्य रोग से
इकतारे के स्वर होने लगे हैं गुम
औरत ने पैरों को जोड़ लिया है हाथों से,
पीठ को खंभों में बदल दिया है
और मजबूती से थाम लिया है इकतारा
पीढ़ियों को सौपने के लिए।