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हमारे समय के सांड / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

Kavita Kosh से
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1.
चारा की तलाश में
गायब हुआ सांड लौट आया है
सब अचरज में हैं उसे देखकर
मौन है, शांत चित्त होकर देख रहा है

बच्चे चिंता में हैं
पहले की तरह खदेड़ नहीं रहा है
पूँछ हिला रहा है लगातार
औरतें दूर से ही भागना चाहती हैं

बुढ़ापे समझाए जा रहे हैं
सांड से बचने की तरतीबें लोगों को
खेत-कियारी सुरक्षित रखने की चिंता
परिवेश में अधिक बढ़ गयी है इन दिनों

सांड भी कुछ कहना चाहता है
यह कि वह मारता नहीं
यह कि वह दौड़ता नहीं
यह भी कि खेती कियारी पर नहीं डालता बुरी नजर

लोग रखवाली में हैं
घर-परिवार और जर-जमीन के
पता है उन्हें यह सांड की ईमानदारी नहीं
मजबूरी भले हो सकती है न चल पाने की

सांड भी जानता है
नहीं बदल सकता वह स्वयं को
चिल्लाना इसीलिए छोड़ा है कि लोग
नम्रता के भेष में उसके शिकार हों|

2.
पहले अकेले ही चल देता था
पूंछ उठाए
पघुराते हुए सांड

जिधर से गुजरता था
भाग खड़े होते थे सब के सब
भागने वाले निडर होने लगे, तो
सांड ने बदल लिया अपनी आदत

अब सांड अकेला नहीं है
साथ चलता है लाव-लश्कर को लेकर
चौकन्ना रहता है
हाथ पैर मारता रहता है आगे पीछे

सुना है पिछले दिनों
अभ्यास कर रहा था हथियार चलाने की
उसके ही पड़ोसियों ने हिदायत दी थी
सीखे रहोगे तो बचे रहोगे

हथियार कहाँ से पायेगा यह चिंता उसे थी
परिवेश में हलचल है कि हथियारों से लैस है वह
पड़ोसियों ने चंदे जुटा कर मुहैया कराया है
अब सांड घर-परिवार से लेकर देश-दुनिया के लिए एक सिरदर्द है
 
3.
इधर सांड को समाज में बड़ा परिवर्तन दिखा है
लोग बदलाव की चाहत में कैसे जड़ हो रहे हैं
वह देख रहा है जहाँ से सभ्य होते हैं लोग
वहां वेद नहीं जंतर मंतर लिखा है

अब मनुष्य वह मनुष्य नहीं रहा
जो डरता था अक्सर जानवर को देखकर
वह मान चुका है कि जानवर उसके पूर्वज थे
बूढ़ों की नवयुवक सुनते ही कब हैं आखिर

सांड शंसय में है
मनुष्य को जानवर समझे, तो
जानवर मनुष्य हैं आज के समय के
रोने-मुस्कुराने की कोशिश वह भी करने लगा है
  
सांड पहले नहीं डरता था अपनी विरादरी से
अब मनुष्य से भी डरने लगा है
सांड अब सांड नहीं रहना चाहता इसलिए
अपने अन्दर विचारधारा का विकास करने लगा है
 
पिछले दिनों ऐलान कर दिया था सांड ने
किसी भी मान्यताओं को नहीं मानेगा वह
उल्ट-पलट डालेगा अर्थ प्रतीकों का
हगने खाने की नीति में भी लाएगा परिवर्तन

सब उसे शंसय की दृष्टि से देख रहे हैं
गरिया रहे हैं उसके आस-पड़ोस के लोग
सांड हंस रहा है, उसे पता है जो गरिया रहे हैं
वो भी सांड बनने की प्रक्रिया में आ रहे हैं

4.
कुछ हुआ है इधर
कुछ हो रहा है कहीं
सब कुछ इतना शान्त है
किसी को कोई खबर नहीं

बच्चे
खेल कूद नहीं रहे हैं
सांड
बैठे बैठे पघुरा रहा है

चिड़िया
दूर भागने की कोशिश में है
कुत्ते
देहरी के आस पास नहीं आना चाहते

कोहरा भी नहीं है
ठंड भी रोज से कुछ कम है
महिलाएँ नहीं आ जा रही हैं
नल का रास्ते सूनसान है

घर के बड़े बुजुर्ग
बच्चों को नहीं सिखा रहे हैं
संस्कार-वंस्कार जैसी कोई चीजें
बच्चे भी दुबके पड़े हैं दरवाजे बन्द घर में

सजीवन भाई कहते हैं
ये सांड जो लगातार पघुराए जा रहा है
नहीं मानेगा बिना कुछ किये-कराये
पूंछ हिलाए जा रहा है जैसे टोना पढ़ रहा हो

आसमान तड़क भड़क रहा है
धरती सहमी सहमी है
भागम भाग मचा है पूरे परिवेश में
और यह है कि टस् से मस् तक नहीं हो रहा है

5.
ऑफिस में बैठा सांड
रह-रह कर मुस्कुरा रहा है
कम्प्यूटर पर हाथ फेरते
बार-बार नाक सुरुक रहा है. जुकाम हुई है
आभास ऐसा मिलने वालों को हुआ है

दलाली में कुछ नजर नहीं आया इस शहर
सांड पिछले महीने गया था
किसी घाटी के आस-पास की बस्ती में
आयोजन कोई विचार-विमर्श का था
वह साधना चाहता था व्यापार-लाभ

सामान के रूप में कुछ ख़ास नहीं था
वह कह सकता कि इसमें दम है
जो था पूछता भी नहीं था कोई उसे
हालांकि वह कहता रहा
क्रांति के सारे रास्ते यहीं से होकर निकलते हैं

कैसे कहता अपनी विरादरी में
इस बार नहीं मिली कोई ख़ास अहमियत उसे
अपने जैसे घूमते कुछ सांड़ों को इकठ्ठा किया
फोटो खिचाया फेसबुक पर छोड़ दिया
अब सभी सांड मिल कर क्रांति का नया पैमाना तय करेंगे

इधर समाज में आई चेतना से सभी सांड भयभीत हैं
सूचना मिली है खेतों में धोख नहीं मनुष्य खड़े हैं
दाग तो रहे ही हैं विधिवत मार-पीट कर भगा भी रहे हैं
इसलिए सांड़ों ने निकलना कर दिया है बंद
नारेबाजी के आयोजन अब फेसबुक से निभा रहे हैं

यह न समझ ले कोई
शहर से सांड गायब हो गया है, इसलिए
बार-बार आकर शपथ ले रहा है, यह कि
विरादरी के बाहर के लोगों को नहीं देगा प्राथमिकता
शपथ लेता है कि कूड़ा ही बनाएगा और वही बेचेगा
पुनरावृत्ति नहीं होगी, जो भी हो पहले से घटिया होगी||

6.
जब मैं नहीं बोलना चाहता
कुछ भी इधर कई दिनों से
सुनना चाहते हो तुम
वह सब कुछ जो है इस दुनिया में
और नहीं भी है अभी तक जो
जिसे लाना है हमें-तुम्हें, वह भी

ऐसा भी नहीं है कि
बोलना नहीं आता मुझे कुछ भी
लेकिन ज़रा ध्यान से सुनों
नहीं बोलना चाहता हूँ मैं

सच कह रहा हूँ
बोलने में आवाज होती है
आवाज में कोलाहल से भर उठता है
अपना परिवेश
कुछ पागल होकर नाचने लगते हैं
सब हंस-बोल क्यों रहे हैं एक दुसरे से?

सब नहीं होते
जिन्हें कोलाहल पसंद हो
चिड़ियों का कलरव
भौरों की गुंजार
कोयल की बोल
मनुष्य के परिहास
सब कहाँ पचा पाते
विरोध कर जाते हैं

यह भी नहीं है कि वे
बोलते नहीं कुछ भी कभी
दरअसल वह सब बन जाना चाहते हैं
फूल-कांटे, कौवा-कोयल,
तितली-भौंरा, खेत-फसल
आदमी-जानवर सब के रूप में दिखना चाहते हैं

भले कुछ न कर सकें वे
अपने पास रखना चाहते हैं
सबके अधिकार
सबका कर्तव्य स्वयं पूरा करना चाहते हैं
सब उन्हें सबकुछ समझें
सब का बनकर रहना चाहते हैं

सब जानते हैं
वे आदमी नहीं हैं
जानवर भी नहीं हैं
पंछी, पौधा, हवा, पानी, अग्नि
कुछ भी नहीं हैं वे

इन सबकी शक्ल में
वे हमारे समय के सांड हैं
पाला-पोषा जाता रहा है जिन्हें
सदियों से, इसलिए नहीं कि
उनका होना जरूरी है हमारे बीच
इसलिए कि लोग परेशान रहें

समाज की हर संस्थाओं में
विराजमान हो गये हैं सांड
कुछ आँख दिखाते हैं तो कुछ
मीठी बोली-वाणी से छलते हैं
वह तुम्हें कुछ भी कह दें, बोल दें, कर दें
तुम्हें अधिकार नहीं है कि कुछ सोच भी सको

कल्पना करने के अधिकार पर भी
अब उनका कब्ज़ा है
तुम मात्र महसूस सकते हो अपने समय के घाव को
हथियार, मलहम, कैंची-पट्टी
सब कुछ ही तो उनका है, उनकी दृष्टि में
तुम लावारिस देश के नाजायज औलाद हो
वे वारिस हैं सल्तनत के क्योंकि
उनके ऊपर सरकारी ठप्पा है|

7.
ये कौन कह रहा है
छोड़ दिया है कोयलों ने कूकना
गुंजार नहीं करते भौंरे
मधुमक्खियां नहीं लगातीं छत्ते
दुर्लभ हो गया है सन्तों का मिलना

ये कौन कह रहा है
कोई किसी को नहीं चाहता देखना
बतियाना, हँसना बोलना
सभी ने छोड़ दिया है एक-दूसरे से
नहीं चाहता कोई किसी के साथ उठना बैठना

ये जो कहते हैं
और कह रहे हैं लगातार
समझिए इन्हें कि बोलते हैं बस
शोर मचाते हैं नहीं रहते परिवेश में ये
सब यथावत है झूठ है इनका कहना

मुर्गे अब भी भोर में बोलते हैं
तितलियां मंडराती हैं फूलों के आसपास
अब भी कोयल कूकती हैं बागों में
रंभाती हैं गाय-भैंसे समय समय पर
मिमियाती हैं बकरियां परिवेश में

वे जो कहते हैं
किसी खास झंडे के पहरुवे हैं
पार्टीलाइन पर गढ़ते हैं सम्वेदनाएँ
हाई कमान जो कहता है वही मानते हैं
वही खाते बिछाते ओढ़ते पहनते हैं

बचना है इनसे अब
यही चाहते ही हैं वे कि न रहे कोई
सूनसान में रमकर बस्तियाँ बीरान हो जाएं
ये दिखाई दें और बोलें इनके झंडे
समाज रहे या जलकर श्मशान हो जाए....

8.
सांड नहीं चाहता
सामने से उसे देखकर
कोई सांड कह्कर पुकारे

मौन साध कर चुप-चाप रहता है जैसे
सांड को सबसे अधिक खतरा
सांड के वेश में रहने से नहीं है
सबसे बड़ी चिंता लोगों के दिलो-दिमाग में
सांड दिखने से है

वह चाहता है
नहीं समझे परिवेश उसे सांड
देखे उसे एक बैल की तरह
वह खेतों में भी ख़ट सकता है
दंवरी में भी खप सकता है

पेर सकता है ईख भी
बैल गाडी भी खींच सकता है
रीझ सकता है गायों पर
लड़ सकता है कुश्ती भी
जैसी जिसकी इच्छा हो आजमा सकता है

सांडों की बैठक बैठी है
आज कई दिनों से चर्चा है परिवेश में
सरकार के पास ये मुद्दा है
मुक्त किया जा सकता है उसे सरकारी ठप्पे से
समाज में इस बात की बड़ी चिंता है

सांड होता है सांड ही
सब द्वारा सबको समझाया जा रहा है
जो भूल चुके हैं उन्हें
उसका इतिहास याद दिलाया जा रहा है
हैरान है सांड मनुष्य के दिमाग में
सांड सांड ही कैसे दीखता है |

9.
लोग कहते हैं वरिष्ठ हैं वे
छोड़ दिए हैं संवाद करना
गाली शास्त्र रखते हैं अब सिरहाने
लांघ चुके हैं असभ्यता के सभी पायदान
खुद हैं जंगली
जानवर दूसरों को समझते हैं
साहित्यिक हैं वे
बताते हैं सबको अपनी उपलब्धि
उम्र बीत गयी है लिखते लिखते
जितने की हुई नहीं आधी आबादी
कर चुके हैं उतने आन्दोलन का बीजारोपण
हम जैसे तो जन्म ही नहीं लिए थे इस धरा-धाम पर

हम जैसे नहीं मानते उन्हें
सुना है वाम दर्शन के चितेरे बन
संस्कारों से व्यभिचार करते हैं इन दिनों
गाली का नायाब शेर कभी उन्होंने ही लिखा था
अकादमी वाकादामी में उनके नाम का हो-हल्ला भी मचा था
अब उनके समर्थक उसी का व्यापार करते हैं

वे सभ्य हैं इतना कि
समाज की माँ-बहन को जेब में लेकर चलते हैं
मंच से स्त्री-मुक्ति का पाठ करते हैं
फ़िल्मी गाना गाते हैं ऐसा कि पत्थर भी शरमा जाए
वे नहीं शरमाते क्योंकि वाम का झंडा साथ रखते हैं
कोई प्रतिवाद करे उसे शोषक औब्राह्मणवाद कहते हैं

कौन बताए वरिष्ठ को
उनके वाद से चलता नहीं लोक
अपनी रीतियों-नीतियों का स्वयं होता है निर्धारक
नहीं मानते उनके जैसे ठरकी
लोकवासी विधिवत उन्हें सुधार सकते हैं
वे वरिष्ठ जो घूमते हैं गलियों में साहित्य के नाम पर
हमारे यहाँ उन्हें छुट्टा सांड कहते हैं ||

10.
सांड मायूस था बहुत दिनों से
चर्चा में था परिवेश के
खुश है वह अब इधर
लोग चिंता में हैं

कौन-सी नीति लाएगा
सांड मुस्कुरा रहा है मंद मंद
घूर रहा है आदमी को
आदमी हंस रहा है धीरे धीरे
समझ रहा है सांड को
पशु-पक्षी हैरान सांड कैसी प्रीति बढ़ाएगा

कुछ पता नहीं सांड का
जैसे बदलता है मौसम
उसी तरह बदलता है व्यवहार वह
रोते हैं लोग वह हंसता है
लोग मनाते हैं मातम, मनाता है त्यौहार वह

11.
 वे लिखते रहे
पढने की इच्छा उन्हें होती रही
वे लिखते गये और मैं पढता गया
वे लिखने की नीयति लिए
बनने-ठनने की कोशिश में आ गये
मैं पढ़ता रहा फिर भी
कि परिवर्तन का कोई रास्ता जरूर देगा कवि यह

अब लिखने की जगह
दिखाने की कोशिश की उन्होंने
हाथ में दारू की बोतल
बगल में कन्या की जीती-जागती देह लिए
अटकते-भटकते प्रेम की दुनिया बनाई
दर्शन यह कि अमर है प्रेम
सच यही है जो मिला है
भोग करो आगे बढ़ो...जीवन कहाँ हजार वर्षों का

सीखने की कोशिश में फिर भी पढता रहा
कविता की रवानी यह कि बदलाव लाएगी जरूर
सोचकर गुनता रहा, बढ़ता रहा
अब जीती-जागती देह बन चुकी है वस्तु बाज़ार की
वाह-आह लूट रहा कवि क्रांतिकारी स्वभाव लिए
दर्शन यह कि उपेक्षित है गुदा
मैथुन उसका भी होना चाहिए
जड़ समाज सोचता नहीं कुछ
दुःख उसका आखिर कोई समझता नहीं

पढ़ने का मन नहीं किया उन्हें अब
उनके कहे को मानने से इनकार कर दिया
यह आभास हो गया कि कवि नहीं वह आदमी भी नहीं है
सांड है, छोड़ा गया है विधिवत परिवेश को नष्ट करने के लिए

विचार किया कि इसे यहाँ क्यों रहना है
सांड विरादरी में इसी बात पर हड़कम्प है
कहना यह कि सहवास-अह्वास, आसना-वासना सब तो कर रहा है मनुष्य
हमारे किए पर इतना आक्रोश क्यों
कविता मन की उपज है तन की प्यास पर इतना ऐतराज क्यों

अब सांड को कौन समझाए
जो कविता तुम्हारे लिए तन की प्यास है
वही कविता समाज के लिए अनुसरण-माध्यम है
तुम्हारे लिए व्यवहार है जो वही हमारे लिए दुराचार है
तुम्हारी सुबह गुदा मैथुन, दोपहर रूप-आकर्षण, शाम चेहरा मर्दन है
हमारी सुबह नया जीवन, दोपहर श्रम-साधना, शाम जीवन-संचरण है
यह कहना ही था कि शोर मचाया नंगा होकर उसने
उसके समाज के लोगों ने मुझे जड़वादी और पत्थरबाज बोले
उसकी पशुता को क्रांति और लम्पटता को जन-ताज बोले

उनकी दृष्टि में कविता नंगा होने का इतिहास है
मेरी जानकारी में कविता सही जीवन की तलाश है
वे मानते हैं कि देह-प्यास की अभिव्यक्ति ही कविता की मुक्ति है
मैं मानता हूँ कि उदास-जीवन की अभिव्यक्ति ही कविता की शक्ति है
वे स्वयं को भविष्य का प्रवक्ता बताते हैं
अपने कहे को ईश्वर-कृति-सत्य मानते हैं
वो चाहते हैं कि निर्वस्त्र घूमें किसी कोई आपत्ति क्यों हो

'लोक' उनके दावे को नहीं मानता है
उनकी भूख और प्यास की नीयति को पहचानता है
वे लोक को पागल कहते हैं, जड़ कहते हैं, अमानवीय कहते हैं
एक समय जब नहीं सुनता सौंदर्य उनका
अंततः गति लोक-नियम में ही पाते हैं

12.
सांड चाहता है
स्वच्छंद होकर जीना
स्वच्छंद होकर रहना
स्वच्छंद होकर चिल्लाना
स्वच्छंद होकर बढ़ते रहना
स्वच्छंद होकर चलते रहना
स्वच्छंद होकर घूमना पूरे परिवेश में
स्वच्छंद होकर घूरना पूरे आवेश में

वह नहीं चाहता
उसके जीने
उसके रहने
उसके चिल्लाने
उसके बढ़ने
उसके चलने
उसके घूमने
उसके घूरने में
बाधा कोई और बने
 
वह चाहता है
घर-बार को उजाड़ दे
वह चाहता है छान-छप्पड़ को फाड़ दे
वह चाहता है पेड़-पौधे को रौंद दे
वह चाहता है
कि वह सब कुछ कर दे
जिसमें उसे संतोष मिले
वह नहीं चाहता
उसके यह चाहने में
बाधा कोई और बने

उसके यह सब चाहने में
बल है उसके पास
पूरे परिवेश की फसलों पर
एकाधिकार समझता है वह
कोई उसे रोके
कोई उसे टोके
नहीं कर सकता बर्दास्त वह और
खदेड़ लेता है मारने के लिए
सभी जन-समाज-जीवन को
वह चाहता है स्वच्छंद होकर जीना
बंधन उसे स्वीकार नहीं

तो सुनों सांड
यह भी मनुष्य का परिवेश है
नियम और कायदे हैं यहाँ के
बकायदे चलना होता है उनसे जुड़कर
जो नहीं चल पाते
दाग दिया जाता है उन्हें
छुट्टू सांड से किया जाता है विभूषित और
कर दिया जाता है हवाले सरकार के

सुनों सांड
छुट्टू सांड इस तरह हो जाता है बाहर
पूरे सामाजिक व्यवहार से
आचार से, विचार से, संस्कार से
हो जाता है अलगाव उसका पूरी तरह
न कोई मारता है
न कोई डांटता है
न कोई चीखता है
न कोई चिल्लाता है
बंद कर देता है बोलना एकदम से

सुनों सांड
छुट्टू सांड की उपमा से विभूषित हो
जंगल-वन में रहने की इच्छा पूरी हो,
विधि विधान से इसलिए
छोड़ दिया जाता है उसे घूमने-फिरने के लिए

यह मनुष्य का आतंक नहीं है सांड
उसके समाज का नियम है
स्वभाव है उसका
वह चाहता है बनाने का अच्छा विवेक मिले
न कि उजाड़ मचाने के लिए खुला परिवेश मिले