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हमारे सुंदर दुःख / महेश वर्मा

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इसी से तो ले आए थे उन्हें यहाँ इस डूबते से मैदान पर,
हम चाहते थे कि दूसरी ओर से हमेशा
एक धीमे बुखार में तपते दिखाई दें - हमारे सुंदर दुःख।
बहुत कठिन और अनेकार्थक बिंबों वाली संरचनाओं के भीतर रखकर
अपना गोपन प्रेम, हम लौट आए थे अपने समकाल में।
यहीं सजे हैं हमारे दिव्य पराभव और सोने का पानी चढ़ी सफलताएँ
काफी समय तक जिन्हें हम समझते रहे अपनी भाषा
फिर घिसकर दिखने लगा था नीचे का-सस्ता सा धात्विक।
एक ओस भीगी टहनी पर जल्दी से रखकर अपने आँसू
हमने पहन लिए नज़र के चश्मे -
और जो माँगते रहे एकांत सूर्य से, स्त्री से और संसार से
और जो माँगते रहे एकांत अरण्य से, पुस्तक से और अंधकार से
                             - क्या करते उसका?
कुछ शब्द थे जिन्हें बदल दिया हमने ठीक उनकी नाक के नीचे।
बड़ी मुश्किल थे उठाकर यहाँ तक लाया जा सका उन्हें, इतने
जर्जर थे कुछ सपने कि उनसे झरती ही जा रही थी राख़।
यहीं हमसे टकरा जाते थे हमारे पूर्वज कवि
छड़ी के सहारे टटोलते हुए रास्ता,
प्रायः वे ही माँग लेते थे पहले माफ़ी।
यहाँ कोई नहीं करता था नींद की बातें,
इतने नज़दीक से भी पहचान नहीं पा रहे थे अपने ही बच्चे को,
यहीं दिखाते रहे वो सारी भंगिमाएँ -
कि जिससे वाजि़ब मान लिया जाता था हमारा ख़ून की
एक नुची-चिथी कपड़े की गेंद सी वह पड़ी हुई है किनारे -
हमारी आत्मा।