हमारे सूरमे / हरिऔध
छोड़ कर लाड़ प्यार लड़ने को।
जो हमें बार बार ललकारें।
तीर तदबीर हाथ में ले कर।
क्यों उन्हें तो न ताक कर मारें।
हम लड़ेंगे और लड़ते रहेंगे।
क्यों न वे जी जान से हम से लड़ें।
धो न बैठेंगे हितों से हाथ हम।
हाथ धो कर क्यों न वे पीछे पड़ें।
हम डरेंगे कभी नहीं उन से।
पाप से जो नहीं डरे होंगे।
हाथ उन के नहीं बँटायेंगे।
हाथ जिन के लहू भरे होंगे।
क्यों उमंगें जाँय दसगूनी न हो।
चाव कैसे चित न चौगूना करे।
जब कि जी भर हम उभर पाते नहीं।
किस तरह तब जी बिना उभरे भरे।
जान कितने लोग की बच जाय तो।
जान जाना जान जाना है नहीं।
जाति के हित के लिए गाँव आ गये।
जी गँवाना जी गँवाना है नहीं।
मान सच्चा हाथ आने के लिए।
हाथ की ही हथकड़ी, हैं हथकड़े।
जाति-हित बीड़ा उठा आगे बढ़े।
भाग है, जो पाँव में बेड़ी पड़े।
जम गया तो जमा रहे रन में।
क्यों लहू से न रोम रोम सिंचे।
है खचाखच मची हुई तो क्या।
खींच लें पाँव हम न खाल खिंचे।
जाति-हित बूटी रहेंगे खोजते।
चोट खा, वे क्यों न झन्नाते रहें।
हम पहाड़ों में रहेंगे घूमते।
पत्थरों से पाँव टकराते रहें।
जम गये काम कर दिखायेंगे।
कौन से काम हैं नहीं 'कस' के।
जी गये भी खसक नहीं सकते।
क्यों खसक जाँय पाँव के खसके।
हम नहीं हैं फूल जो वे दें मसल।
हैं न ओले जो हवा लगते गलें।
हैं न हलवे जाय जो कोई निगल।
हैं न चींटी जो हमें तलवे मलें।