भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमारे ही बीच / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
कटे हुए तरबूज की तरह
अपनी नग्नता में आहत
मुस्कुराती
फैशन रैम्प पर जो गई
वह हममें से ही किसी
आत्मा की आत्मजा है
उसकी मुस्कान के घाव को जानो
भयाक्रांत वाराह सा
पृथ्वी को रौंदता
दिहाड़ी पर क्वालिस दौड़ता
उन्मादी ड्राइवर जो गया
उस हिंसा में छुपे आत्महंता को पहचानो
हममें से किसी का छोटा भाई है वह
और वह भी
जो विश्व बाज़ार में
बेचे दे रहा है हमारा सब कुछ
यारो उस चालाक को पहचानो
हमारे ही बीच कहीं वह भी छुपा बैठा है
मुड़ी नीचे किये
प्रजातंत्र की ओट में