भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमार प्राण-देवता / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
Kavita Kosh से
हमार प्राण देवता
अकेले, एकांत में,
जहाँ जाग रहल बाड़े,
ओह मंदिर के दरवाजा
तनि खोल द, हे पुजारी
हम उनका के देखे आइल बानीं
आज हम उनकर दरसन करेब।
सउँसे दिन बीत गइल
भटकते-भटकत बीत गइल।
ना जानीं जे केकरा के खोजे खातिर
बाहरे-बहर घूमत रह गइलीभें।
अबहीं ले संझवतो ना देखवलीं
आरतियो ना कइलीं।
हे पुजारी
आज तहरे जीवन जोत से
हम आपन जीवन-दीप जरएब।
आज हम एकदम एकांत में
आपन पूजा के परात सजाएब।
जहाँ अनंत के साधना में,
अनंत साधक लोग,
अनंत पूजादीप जरवले बा;
उहाँ हमहूँ हम आपन
एगो पूजा दीप जराएब।