हमें कब तक यूँ ही तपती फ़ज़ायें दीजियेगा / सुरेश चन्द्र शौक़
हमें कब तक यूँ ही तपती फ़ज़ायें दीजियेगा
जो गरजें और बरसें वो घटायें दीजियेगा
तमाज़त<ref>गर्मी</ref> माल—ओ—ज़र की बख़्शिये औरों को साहिब
हमें तो प्यार की ठंडी हवायें दीजियेगा
हमारी हक़बयानी<ref>सच कहने की आदत</ref> जुर्म है तो हम हैं मुजरिम
हमें मंज़ूर हैं जो भी सज़ायें दीजियेगा
इज़ारादार<ref>ठेकेदार</ref> सूरज के नहीं हैं आप तन्हा
सभी को सब के हिस्से की ज़ियायें<ref>प्रकाश</ref> दीजियेगा
मुक़द्दर ने जिन्हें काँटे ही पहनाये हमेशा
कभी उनको भी फूलों की क़बायें <ref>पोशाकें</ref>दीजियेगा
सभी उलझे हुए हैं अपनी—अपनी उलझनों में
किसे फ़ुर्सत यहाँ किसको सदायें दीजियेगा
बड़ी बेरंग—ओ—रौनक़ है फ़ज़ा इस अंजुमन की
इसे थोड़ी —सी अपनी शोख़ अदायें दीजियेगा
अँधेरों को मुक़द्दर जान कर जो मुतमुइन<ref>संतुष्ट</ref> हैं
ज़रा उन तीरा—ज़िह्नों <ref>अंधकारमय बुद्धि वाले</ref>को ज़ियायें दीजियेगा
शिफ़ायाब <ref>स्वस्थ</ref>अब तो होने के नहीं हम ‘शौक़’ हर्गिज़
दवायें दीजिये चाहे दुआयें दीजिएगा