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हमें गढा नहीं जा सकता / नीलोत्पल
Kavita Kosh से
तुम वह हो जिसे मैं नहीं जानता
मैं वह हूं जिसे तुम लोप करती रही हो
तुम पृथ्वी के हरेपन से आती
एक आवाज़
एक आवाज़ ख़ामोशी से हो रही बारिश की
एक आवाज़ घास में उतरती रोशनी की
मैं एक अस्थिर परछाई
एक रुमाल जिसे तुम लहराती हो हाथों से
इसे तुम हवा के साथ बातें करना कहती हो
तुम और मैं
बंद परदे से खोली गई खिड़की,
एक बंद किताब जिसे दीमकें
चाटती हैं अलमारियां में
और हम पन्ने-दर-पन्ने
होते जाते हैं अदृश्य
कि जो शब्द थे
वे उन किताबों की स्मृति रह गए
जिन्हें पढा जाना संभव नहीं
अब हम फिर से उतरती थकान
कोरे काग़ज़ों का असीमित फैलाव
भरे प्याले-सी छलकती होंठों की चाह
हम एक असंभव बिंब की तरह
बार-बार लिखे जाते