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हमें चाहिए खिलखिलाहटों की दो चार जड़े / मनीष मिश्र

वर्षों से हमारी देह में उग रहा है मौन
जंगली खुभिंयो-सा ।
हमारे पास-
कुछ रूई सी मुलायम स्मृतियाँ हैं
और चिनार-सी लम्बी यादें
कुछ प्रार्थनाएँ है हमारे पास
और कुछ गीत भी ।

हमें चाहिए-
प्यार करने के लिए
सताई हुई दो निर्दोष आँखें,

खिलखिलाहटों की दो-चार जड़े
जो उग सके हमारे मौन में ।
और-
माँ की जैसी स्नेहिल उंगलियाँ
जो उभार सकें
हमारे बचपन के हरे-हरे गीत ।

हमें नहीं चाहिए-
बरगद जितने बड़े सुख,
समुद्र की ओर खुलने वाली खिड़की,
और-
सड़को से भी लम्बी उम्र ।

हमें बस-
जरूरत है दो परों की
जिन्हें पहना सकें हम
सहेज कर रखे हुए सपनों को
और -
कुछ तीखी कविताओं की,
जिन्हें सुलगा सके हम
धीमी यी आँच में ।