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हमेशा आर्ज़ूओं पर बसर की / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’
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हमेशा आरज़ूओं पर बसर की
कहानी है यह उम्र-ए-मुख़्तसर की
फ़ुग़ाँ सुनते रहे हम चश्म-ए-तर की
शब-ए-ग़म इस तरह हमने सहर की
दिगर-गूँ रंग-ए-बज़्म-ए-आशिक़ी है
पड़ी है आप को रक़्स-ए-शरर की
मआल-ए-बन्दगी ज़ाहिर था फिर भी
नमाज़-ए-इश्क़ अदा इक उम्र भर की
कोई हमदर्द है दुनिया में मेरा?
ये बातें कर रहे हो तुम किधर की?
बजा है आप की ये पुर्सिश-ए-ग़म
मगर जब की ब-अन्दाज़-ए-दिगर की!
हमें तुझ से नहीं कोई शिकायत
ख़बर दीवार को ही कब है दर की?
नज़र आ जायेगा क़तरे में दरिया
ज़रूरत है मगर हुस्न-ए-नज़र की!
न कर दुनिया की तू "सरवर" शिकायत
मिरी जाँ बात है अपने ही घर की!