हम्मर सप्पत तोरा संगी / नरेश कुमार विकल
मंहफा मे बैसलि ही डोलय
बाबुल कें घर छूटि रहल।
ललकी मंहफा आगू-पाछू
चारि कहरिया दौड़ि रहल।
आगि लगौ बाभन कें देह मे
एहन दिन बनौलक जे
कनिको हम्मर दरद ने बुझलक
एहन मे कनौलक जे
मायक ममता कें संगे-संग
कनियाँ-पुतरा छूटि रहल।
ललकी मंहफा आगू-पाछू
चारि कहरिया दौड़ि रहल।
के कहतै हमरा बहीन, हम-
कहबै ककरा यौ बौआ
कोना कें जेबै बाड़ी-झाड़ी
कोना उड़ेबै धा‘ कौआ
गामक दुर्गा छूटि रहल अछि
रतुका नाटक छूटि रहल।
ललकी मंहफा आगू-पाछू
चारि कहरिया दौड़ि रहल।
कोना कऽ खेलबै सामा-चकेबा
झुमि-झुमि गेबै ककरा संग ?
ककरा भौजी खेहि पकड़तीह
लेपती ककरा ललका रंग ?
गाम लऽगन कोना कऽ देखबै
सखी-बहिनपा छूटि रहल।
ललकी मंहफा आगू-पाछू
चारि कहरिया दौड़ि रहल।
मोन पाड़ि बाबू कें देबनि
जल्दी हमरा मंगाऽ लेताह
हम्मर सप्पत तोरा संगी
नै तऽ हमरा बिसरि जेताह
माय कें कहि देबै बुझाकऽ
ओकरे पर मन लागि रहल।
ललकी मंहफा आगू-पाछू
चारि कहरिया दौड़ि रहल।