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हम्में बबूल छी (कविता) / दिनेश बाबा

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झड़ी-बुन्नी बाढ़ोॅ में
अखनी अषाढ़ोॅ में
झूमै छी, हुलसै छी
सूरजोॅ के गर्मी सें
धूपोॅ में झुलसै छी
हावा-बतासोॅ में
अंधड़-झकासोॅ में
सुख-दुःख भी सहै छी
मनोॅ के व्यथा मतर
केकर्हौ ने कहै छी
पानी में तीती केॅ
खाय हम्में जाड़ा छी
जीयै के असरा में
जुग-जुग सें खाड़ा छी
बलुआही खेतोॅ पर
गंगा के रेतोॅ पर
उगलोॅ फजूल छी
हम्में बबूल छी।

2.

देखै में हमरोॅ तेॅ
रूप रंग करिया छौं
हमरोॅ है जिनगी में
सकठे अन्हरिया छौं
जाड़ा के रातोॅ में
एक्के रङ जोगी छी
लोगोॅ के कामोॅ में
बड्डी उपयोगी छी
बाढ़ होय, बहाव होय
भूमि के कटाव होय
मट्टी केॅ पकड़ै छी
समरथ भर कस्सी केॅ
जड़ोॅ सें जकड़ै छी
ओयसें तेॅ सौंसे धोॅर
कांटा आरू शूल छी
जैसें विधाता के
शायद कोय भूल छी
हम्में बबूल छी।

3.

जैहिया मुसाफिर कोय
हिन्नें सें जाय छौन
हमरे ही छाँहिर में
सब्भे सुस्ताय छौन
के हमरोॅ जात छै
सोचै के बात छै
अंतर सें तैय्यो हमरोॅ
हिरदय जुड़ाय छौन
जीयै के सार्थकता
हमरा बुझाय छौन
पुलकित मन जागै छै
हमरा ऐन्हों लागै छै
कटी-कटी पत्ता पर
पीरोॅ-पीरोॅ फूल छी
नैं आपनोॅ स्वारथ के
परहित परमारथ के
जिंदा असूल छी
हम्में बबूल छी।

4.

सखुआ सिहौड़ा रङ
ऐंठी मरोड़ी केॅ
टहनी या ठल्ली केॅ
काटी आरू तोड़ी केॅ
दत्तन बनाय छौन
काम भर रक्खी केॅ
काँटा छितराय छौन
लोगोॅ के करलोॅ है
लोग्है पर पड़ै छै
आदमी के भूल मतर
आदमिहै केॅ गड़ै छै
शूल रङ कसक तबेॅ
हमर्हौ बुझाय छौन
दोषी नैं तैय्यो गारी
हमर्है सुनाय छौन
लागै छै प्रकृति के
हम्में प्रतिकूल छी
हम्में बबूल छी।

5.

करै छी दान हम्में
लकड़ी दधिची रङ
कटवाय चिरवाय केॅ भी
आपनोॅ सब अंग-अंग
केत्तेॅ डिजायनोॅ के
फर्निचर में ढलै छी
सीसम आरू सखुआ सें
कम्मो नैं चलै छी
तैय्यो अशुद्ध कुच्छु
लोग हमरा मानै छै
चलोॅ कोय बात नै
एन्हौं तेॅ जानै छै
अपना केॅ मारी केॅ
जनहित लेॅ जारी केॅ
हरदम हर हालोॅ में
अपनोॅ खियालोॅ में
तैय्यो मशगूल छी
हम्में बबूल छी।