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हम अंधेरे में चरागों को जला देते हैं / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

हम अंधेरे में चरागों को जला देते हैं
हम पे इल्ज़ाम है हम आग लगा देते हैं

कल को खुर्शीद भी निकलेगा, सहर भी होगी
शब के सौदागरों ! हम इतना जता देते हैं

क्या ये कम है कि वो गुलशन पे गिरा कर बिजली
देख कर खाके-चमन आँसू बहा देते है

बीहडों में से गुज़रते है मुसलसल जो क़दम
चलते-चलते वो वहां राह बना देते हैं

जड़ हुए मील के पत्थर ये बजा है लेकिन
चलने वालों को ये मंज़िल का पता देते हैं

अधखिले फ़ूलों को रस्ते पे बिछा कर वो यूँ
जाने किस जुर्म की कलियों को सज़ा देते हैं

अब गुनह्गार वो ठहराऐं तो ठहाराऐं मुझे
मेरे अशआर शरारों को हवा देते हैं

एक-एक जुगनू इकट्ठा किया करते हैं 'यक़ीन'
रोशनी कर के रहेंगे ये बता देते हैं