हम अपनी बाग़ी चीखों के चलते जो मशहूर हुए / विनय कुमार
हम अपनी बाग़ी चीखों के चलते जो मशहूर हुए।
ख़ंज़र से कुछ ज़ख्म मिले थे, नश्तर से नासूर हुए।
हम भी मालिक तुम भी मालिक, हर मालिक के मालिक भी
जाने किस मालिक की रहमत से खट्टे अंगूर हुए।
ज़िंदा रहते तो सुरंग में कोई दिया जला लेते
रूहानी ताक़त के झांसे में मरकर मज़बूर हुए।
जिन पर बैठ कभी वे गुम्बद होने का सुख पाते थे
दहशत की उन मीनारों से गिरकर चकनाचूर हुए।
बुझे नहीं कह कर दादी ने सच की जो सिगड़ी दी थी
उसे जलाए रखने की कोशिश में कई क़सूर हुए।
‘क’ से पहले कौन बोलता हूँ तब कहता हूँ काकी
पास हुई हैं जबसे दीवारें, दरवाज़े दूर हुए।
बँधने के राज़ीनामे से बँधी नदी की कौन सुने
बहने लगी इशारे पर तो नखरे नामंज़ूर हुए।
भुज की भुजा उठाकर पूछ रहा हूँ पालनहारों से
दिन ही क्या बीते थे मेरे सीने में लातूर हुए।
ऊंची उलटबाँसियाँ वाले बाँस पकड़ कर उलट गए
कुछ दल-दल के दास हुए बाक़ी सत्ता के सूर हुए।
दावे कहाँ तोड़ पाते हैं दाँत समय की आरी के
कटने तक कैलाश कई थे, कटते ही काफ़ूर हुए।
हौदे में बैठे कानों को अंधे अच्छे लगते हैं
जिनके सपनों के हाथी में बैठे और हुज़ूर हुए।
छत तक जाना कभी नहीं है छत पर जाना या होना
जो भी क्षत्रप हुए छतों के सीढ़ी के तंदूर हुए।