हम अपने परिन्दों का आहार ही तय नहीं कर पाते थे, और
इस तरह जैसे किसी कथा में अन्त के दिन गुज़रते रहे।
अब भी गुज़रते हैं, जैसे चिड़ियाँ आख़िरकार दिनों को
ही खाने लगी हों। जैसे नीला कहने से ही उन जगहों का
आसमान नीला हो जाए जहाँ हमें जाना है।
यह एक भुतहे क़िस्म का लेखन था जो हमारे पुरखे हमारी
उँगलियों में बैठकर करने की कोशिश करते थे। इन पन्नों
से खुद को ढाँपकर सोने की इच्छा लिए हम लिखते थे
और लिख नहीं पाते थे।
उथले पानियों में भी समय को उफ़नी हुई नदी-सा बरत
लेते थे।