हम आजकल कहीं नहीं रहते / रश्मि भारद्वाज
हम स्मृतियों में लौटते हैं
क्योंकि लौटने के लिए कहीं कुछ और नहीं
वे सभी जगहें जहाँ हम जा सकते थे
हमारी पहुँच से थोड़ा आगे बढ़ चुकी हैं
या इतना पीछे छूट गयीं हैं
कि हमारे पैर नहीं नाप पाते वहाँ तक की दूरी
स्मृतियों में लौटना दरअसल भटकना है अरण्य में
दिशा, काल, पहर का हिसाब यहाँ कोई मायने नहीं रखता
मुक्त, निर्बंध भागते मन के पैर
कई बार लहूलुहान हो कर चीख पड़ते हैं
फिर भी यह कुछ वो बची खुची जगहें हैं
जहाँ हम ख़ुद को अब भी ख़ोज निकाल लाते हैं
अपने आज़ में पूरी तरह गुम हो चुकने के बाद भी
हमारे वर्तमान को ज़रूरत है एक स्थाई पते की
जहाँ रहने के सुबूत दिए जा सकें
लेकिन यह कतई ज़रूरी नहीं कि हर रोज़ वहाँ सोने जागने पर भी
हम वहाँ साबूत पाए जाते हों
हमारी उँगलियों की छुअन से उकताई चीज़ें
अक्सर अज़नबीपन की गन्ध से भर आती हैं
रोज़ की भटकन से आजिज़
पीछे छूटी चप्पलें भी हमारी शिनाख़्त करने से इंकार कर सकती हैं
कई बार घर के बाहर लगी तख़्ती तक हमारे असल चेहरे से नावाकिफ़ होती है
दरसअल हम आज़कल कहीं नहीं रहते
अपने ओढ़े गए खोल में भी नहीं