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हम इधर रह गए तुम उधर रह गए / रंजन कुमार झा
Kavita Kosh से
गम हमारे-तुम्हारे नहीं थे अलग
हम इधर रह गए तुम उधर रह गए
एक झोंका हवा का उड़ा ले गया
गंध उपवन की हमसे चुरा ले गया
फूल नाज़ुक थे, हम रह गए देखते
कुछ इधर झर गए कुछ उधर झर गए
डूबती आस को न किनारा मिला
चुक रही श्वास को न सहारा मिला
यूँ मुहब्बत की दरिया में डूबे हुए
हम इधर बह गए तुम उधर बह गए
हम न भर ही सके वक़्त के घाव को
व्यक्त कर न सके पीर के भाव को
देवताओं के दर सर पटककर व्यथा
हम इधर कह गए तुम उधर कह गए
थी रिवाजों की मजबूत जंजीर वह
खोल पाए कभी हम न उसकी गिरह
दर्द-संताप ही झेलना था लिखा
हम इधर सह गए तुम उधर सह गए