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हम उम्मीदों के अलादिन, आँख में सपने संजोये / आशुतोष द्विवेदी
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हम उम्मीदों के अलादिन, आँख में सपने संजोये,
खुद को एक चिराग जैसा, मुद्दतों से घिस रहे हम
जो मुक़द्दर दे रहा था और हम जो चाहते थे,
फर्क़ दोनों में बहुत था इसलिए मुफलिस रहे हम
दीदावर पैदा चमन में एक दिन होगा कहीं तो,
अपनी बेनूरी पे’ रोते, उम्र भर नर्गिस रहे हम
पत्थरों की बस्तियों में, इस क़दर बिगड़ी तबीयत,
गुलशनों में भी गए तो देर तक बेहिस रहे हम
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