हम एक हैं / महेन्द्र भटनागर
तूने कर दिया बरबाद
मेरे देश का वैभव
कि मेरे देश का गौरव !
मुझे है याद —
मेरी भूमि पर बहता कभी था
नीर-सा घी-दूध,
जैसे आज बहता
युद्ध के मैदान में
पेट्रोल अथवा ख़ून !
जन-जन तृप्त थे
निश्चिन्त,
जीवन में सुखी !
पर, आज
तूने कर दिया मुहताज,
भूखों मार !
दुख, आतंक,
गोलों और तोपों का भरा भंडार !
लड़ते देश के बालक
झगड़ गोबर सरीखी चीज़ के ऊपर !
धृणित !
तूने जमाया पैर माँ के वक्ष पर,
जिसके करोड़ों लाल
हिन्दू और मुस्लिम को लड़ाया,
फूट का बो बीज,
भू-सम्पत्ति का विक्रय !
नया भावी मनुज,
जब नीति तेरी
याद किंचित भी करेगा तो —
उबलकर क्रोध से अपने,
भरे प्रतिशोध ज्वाला,
दाँत लेगा पीस !
अपने बाप-दादों की
मरण-सी बेबसी पर,
अश्रु की धारा बहाकर !
तोड़ देगा गर्व सब !
पर, आज तो ये आँख मेरी
देखतीं वह दृश्य —
जीवन में
कभी भी स्वप्न तक में
जो न सकता सोच !
क्या मिट सभ्यता सारी गयी ?
वर्षों हमारी साधना का —
एकता का प्रयत्न,
सब साहित्य का वरदान,
मिट्टी हो गया ?
होना असम्भव है !
रुकेगी यह नहीं आवाज़ —
‘सब इंसान जग के एक हैं !
हम एक हैं !