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हम कब शरीक होते हैं / अकबर इलाहाबादी
Kavita Kosh से
हम कब शरीक होते हैं दुनिया की ज़ंग में
वह अपने रंग में हैं, हम अपनी तरंग में
मफ़्तूह<ref>खुल कर बोलना</ref> हो के भूल गए शेख़ अपनी बहस
मन्तिक़<ref>तर्क शास्त्र-एक विषय</ref> शहीद हो गई मैदाने ज़ंग में
शब्दार्थ
<references/>