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हम कहाँ ज़िन्दगी से हारे हैं / सुभाष पाठक 'ज़िया'
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हम कहाँ ज़िन्दगी से हारे हैं
रूह का पैरहन उतारे हैं
ज़ायक़ा तो चखो मुहब्बत का
दर्द मीठा है अश्क खारे हैं
ज़िन्दगी के लिए ये काफ़ी है
तुम हमारे हो हम तुम्हारे हैं
अब चमकते नहीं तो क्या कीजे
होने को भाग्य में सितारे हैं
क्या बिगाड़ेगी आपकी तलवार
हम तो पानी के बहते धारे हैं
बात बे बात हँस रहे हैं जो
ऐ 'ज़िया'वो भी ग़म के मारे हैं