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हम काहे के कवि हैं, भइया ! / कैलाश मनहर

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हम काहे के कवि हैं, भइया ?

कवि तो वे हैं जिनको मिलते
पुरस्कार हैं बड़े बड़े ।
कवि तो वे हैं दरबारों में
रहते जो करबद्ध खड़े ।।
 
कवि तो वे हैं जो सम्मानित
होते हैं सेठों से और,
कवि तो वे हैं क्रान्ति करें जो
बिस्तर में ही पड़े-पड़े ।।

ऐसे कवियों की तुलना में
कहाँ भला हम ठहरेंगे
हम तो अनदेखे कौने में
मकड़जाल की छवि हैं, भइया ।।

हम काहे के कवि हैं, भइया ?

कवि तो वे हैं सुख-सुविधा में
रह कर दु:ख की बात करें ।
कवि तो वे हैं जो छुप छुप कर
कविता से ही घात करें ।।
 
कवि तो वे हैं जो मंचों से
लम्बे लम्बे भाषण दें,
कवि तो वे हैं जिनके घर में
लक्ष्मी जी बरसात करें ।।

हम तो जलते हवन कुण्ड में
सूखी समिधा हवि हैं भइया ।।

हम काहे के कवि हैं, भइया ?