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हम कि अक़वाल बुज़ुर्गों के पढ़ा करते हैं / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
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हम की अक़वाल बुज़ुर्गों के पढ़ा करते हैं
राह जो नेक हो उस राह चला करते हैं
वाह! क्या ख़ूब चमकती है ज़बीनें उन की
जिन के सर रोज़ हजूरी में झुका करते हैं
खैरो-बरकत की दुआ करती है सब के हक़ में
एक कुटिया जहां दरवेश रहा करते हैं
रौशनी देते हैं भटके हुए हर राही को
हैं दीया बन के सरे-रहा चला करते हैं
उन की तक़दीर पे कोई नहीं रोने वाला
अध-खिले फूल जो शाख़ों से झड़ा करते हैं
जो लिबासों में भी आते हैं नज़र अध-नंगे
ऐसे कुछ लोग भी राहों में मिला करते हैं
नाव खेते हुए जाते हैं हम उन से मिलने
वों हमें ख़ाब जंज़ीरों में मिला करते हैं
इतनी तौफ़ीक़ कहां, शेर कहें हम 'रहबर'
ग़ैब से हम कोई आवाज़ सुना करते हैं।