Last modified on 27 जुलाई 2013, at 16:37

हम को तासीर-ए-ग़म से मरना है / 'जिगर' बरेलवी

हम को तासीर-ए-ग़म से मरना है
अब इसी रंग में निखरना है

ज़िंदगी क्या है सब्र करना है
ख़ून का घूँट पी के मरना है

जान-निसारी कुबुल हो के न हो
हम को अपनी सी कर गुज़रना है

मौज-ए-दरिया हैं हम हमारा क्या
कभी मिटना कभी उभरना है

सम्म-ए-क़ातिल ‘जिगर’ नहीं मिलता
दिल का क़िस्सा तमाम करना है