भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम को तो बे-सवाल मिले बे-तलब मिले / कलीम आजिज़
Kavita Kosh से
हम को तो बे-सवाल मिले बे-तलब मिले
हम वो नहीं है साकी के जब माँगे तब मिले
फरियाद ही में अहद-ए-बहाराँ गुज़र गया
ऐसे खुले के फिर न कभी लब से लब मिले
हम ये समझ रहे थे हमीं बदनसीब हैं
देखा तो मैकदै में बहुत तिश्ना-लब मिले
किस ने वफा का हम को वफा से दिया जवाब
इस रास्ते में लूटने वाले ही सब मिले
मिलते हैं सब किसी न किसी मुद्दआ के साथ
अरमान ही रहा के कोई बे-सबब मिले
रक्खा कहाँ है इश्क ने ‘आजिज़’ को होश में
मत छेड़ियो अगर कहीं वो बे-अदब मिले