भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम क्यों नहीं मरते / राबर्ट ब्लाई
Kavita Kosh से
					
										
					
					सितम्बर बीतते-बीतते तमाम आवाजें 
बताने लगती हैं आपको कि आप मर जाएंगे.
वह पत्ती, वह सर्दी कहती है यह बात.
सच कहती हैं वे सब. 
हमारी तमाम आत्माएं - वे क्या 
कर सकती हैं इस बारे में ?
कुछ भी नहीं. वे तो हैं ही अंश 
अदृश्य-अगोचर की. 
हमारी आत्माएं तो 
उत्सुक रही हैं घर जाने के लिए.
"देर हो गई है," वे बोलती हैं 
"दरवाजा बंद कर दो और चलो." 
देह राजी नहीं होती. वह कहती है,
"वहां उस पेड़ के नीचे 
हमने गाड़े थे कुछ लोहे के छर्रे.
चलो निकालते हैं उन्हें." 
अनुवाद : मनोज पटेल
	
	