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हम गुज़रे अकेले / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
हम शहर के
बीच से गुज़रे अकेले
भीड़ थी
पर कोई भी अपना नहीं था
अनमना-सा एक सूरज
हवा में लटका वहीं था
और थे
इतिहास के कुछ नये खेले
नदी थी
पर घाट सब टूटे पड़े थे
इक सुनहरी लाट की ही
रोशनी के आँकड़े थे
अनगिनत थे
हाट के सिरजे झमेले
शोर था
पर समझ कुछ आता नहीं था
आरती-नातें वही थीं
देवकुल से किसी का नाता नहीं था
घर नहीं थे
महज़ सुख के थे तबेले