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हम गुनगुनाते क्यों नहीं / प्रेमलता त्रिपाठी

वसुधा सजे शुभ कर्म से पथ को सजाते क्यों नहीं ?
सुंदर हमारी हर विधा हम गुनगुनाते क्यों नहीं ?

कविता चुनेगी पथ वही आधार चिंतन हो जहाँ,
सब छंद बनकर साधना नवधा बनाते क्यों नहीं ?

हर भावना को लेखनी देती सदा सम्मान जब,
निर्मल हृदय रस धार से मनको भिगाते क्यों नहीं ?

आती बहारें लौट कब होता कहाँ जीवन सरस,
तुलसी कबीरा गान मीरा बन रिझाते क्यों नहीं ?

श्वांसें हमारी सींचती सद कर्म देते साथ तब,
श्रम सीकरों की बूंद से हम भी नहाते क्यों नहीं ?

सोपान से गिरता तभी चढ़ना वही जो जानता,
साहस सरस उठते कदम आगे बढ़ाते क्यों नहीं ?

है रंग जीवन के बहुत नव गीति से लें नित सजा,
फागुन कहीं सावन सखे खुशियाँ लुटाते क्यों नहीं