हम चाहै छी / रामलोचन ठाकुर
कविता हमर
कोनो मन्दिर मसजिद वा
कोठासँ नहि, मजूरक झोपड़ीसँ
कारखानाक जरैत चिमनीसँ
खेत जोतैत हरक फारसँ
धीपल लोह पर पड़ैत लोहारक हथौड़ासँ
कुम्हारक चाकसँ
चमारक टाकुसँ जनमओ, हम चाहै छी
हम चाहै छी, हमर कविताक सौन्दर्य
कोनो देव प्रतिमाक साज श्रृंगार
कोनो वारवनिताक भाव-भंगिमा
लिपस्टिक रंगल अधरक मुस्कान नहि
एक हाथें चिल्हका सम्हारैत
चूल्हि पजारैत
घामे-पसेने तर-बतर भेल
कखनो बाट दिस, कखनो चूल्हि दिस निहारैत
कुलवधूक सहज-सिनेह गमलाक गुलाब नहि
सिहकैत मन्द बसातमे
लहलहाइत खेत हम चाहै छी
हम चाहै छी
हमर कविताक हमर कविताक अलंकार
मजूरक सक्कत हाड़ ओ सोझ-डाँड़
मजगूत माँसल बाँहि आ कसल मुट्ठी तानल, हम चाहै छी
हम चाहै छी, हमर कविताक संगीत
छन्द लय-ताल, कोठा पर नचैत बाइजी
मन्दिरक देवदासीक घुंघरूक आवाज
बजैत नाना साज नहि, ढेकी जांतक आवाज
कनसारिनक लाड़नि
हट्ठामे आ पौर-पर चलैत बड़दक
गरदामीक बजैत घण्टी-ध्वनि
लोहारक हथौड़ा आ मसीनक आवाज, हम चाहै छी
हम चाहै छी, हमर कविताक भाव
कोटि-कोटि शोषित पीड़ित मनुपुत्रक
परितोष नहि, आक्रोशक उपादान हो
मुक्ति संघर्षक प्रेरणा, शक्ति सरंजाम हो, हम चाहै छी।
हम चाहै छी, हमर कविताक अर्थ
प्रतातंत्रक संसद संविधानमे
भाषाक अभिधानमे नहि ताकल जाए
पेटतन्त्रक खेत खरिहानमे
कल-कारखानामे, गामक एकपेरिया आ
शहरक फुटपाथ पर, गामक बोनिहार आ
शहरक मजूरक अन्हार बस्तीमे, हम चाहै छी
हम चाहै छी, हमर कविता
महानगरक कोनो शीत-ताप नियन्त्रित
सभागार में भद्र सुसज्जित समुदाय मध्य नहि
पढ़ल जाए
कोनो कारखानाक गेट पर
मजूरक बीच, खेतक आरि पर
झहरैत मेघक बीच सारिबद्ध
पतरोपनी करैत श्रमिकक समक्ष, हम चाहै छी
हम इएह टा चाहै छी
अपन-कविताक लेल।।