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हम जब बीतें कल / कुमार रवींद्र

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अँधियारा हो घना
सखी, तब
तुम सुहाग के फूल खिलाना
 
तारे देंगे साखी सुख की
महकेगी जब देह तुम्हारी
नहलाएगी हमें छोह से
ऊपर है जो नदी कुँआरी

वही नदी-जल
नेह-देवता के अंगों पर
             सखी, चढ़ाना
 
साँसें अपनी मंत्र जपेंगी
पंखुरियों की हठी छुवन के
भीतर जो आकाश हमारे
हो जायेंगे सोनबरन के
 
इन्द्रधनुष जो
आँखों में है
उससे ऋतु के घाट सजाना
 
हम दोनों के देह-क्षितिज पर
हुई फागुनी जो घटनाएँ
उनसे ही तो उपजी हैं
हमने जो लिक्खी वे कविताएँ
 
हम जब बीतें
कल, सजनी
तब बच्चों को तुम वही सुनाना