भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम जमीं पर थे खड़े पर आसमाँ होते रहे / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
हम जमीं पर थे खड़े पर आसमाँ होते रहे
ढूंढने खुद को चले तो बेनिशाँ होते रहे
एक ही माँ के जने हम एक मिट्टी से बने
फ़ासले लेकिन हमारे दरमियाँ होते रहे
है हवायें नफरतों की दहशतों की धूल भी
ख़ाक सारे ख़्वाब वाले आशियाँ होते रहे
जिंदगी बर्बाद कर दी हमने जिसके वास्ते
वो हमेशा दूसरों पर मेहरबां होते रहे
फिर खिलेंगें फूल गुलशन में अमन ईमान के
आस में जिस की हमेशा हम जवां होते रहे
आपकी ही आरजू की आपकी ही जुस्तजू
आप ही हम से मगर यूँ बदगुमां होते रहे
नक्शे पा जिस शख़्स के थे रास्ता दिखला रहे
रास्ते से आज उस के गुम निशां होते रहे