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हम जो देखते हैं / नीरज दइया

Kavita Kosh से
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कभी कभी नहीं
ऐसा होता है हर रोज
हम जो देखते हैं
या हमें जो दिखता है-
बहुत कुछ छूट जाता है
उस में अनदेखा!

कुछ रह जाता है
दृश्य से बाहर
होते हुए भी ठीक सामने,
देख नहीं पाते हम उसे
अक्सर हम देखते हैं वही
चाहते हैं- जो देखना।

बार बार आती हैं सामने
वे छूटी हुई चीजें,
फिर भी नहीं देखते हम।
जब होती है जरूरत
होकर बेचैन तलाशते हैं
हमारे सामने रखी हुई चीजें!