हम जो नीम तारीक राहों में मारे गए / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हम जो तारीक राहों में मारे गए ।
तेरे होठों के फूलों की चाहत में
दार की ख़ुश्क टहनी पे वारे गए ।
तेरे हाथों की शम्मों की हसरत में हम
नीम तारीक राहों में मारे गए ।
....
दार - फ़ाँसी का तख़्त, तारीक - अंधेरे, नीम - आधा रोशन
....
सूलियों पर हमारे लबों से परे
तेरे होठों की लाली लपकती रही ।
तेरी ज़ुल्फों की मस्ती बरसती रही
तेरे हाथों की चाँदी दमकती रही ।
......
जब खुली तेरी राहों में शाम-ए-सितम
हम चले आए, लाए जहाँ तक क़दम
लबों पर हर्फ़-ए-ग़ज़ल, दिल में क़िन्दील-ए-ग़म ।
अपमा ग़म था गवाही तेरे हुस्न की
देख क़ायम रहे इस गवाही पर हम ।
....
हर्फ़ - अक्षर । क़न्दील - दीया ।
....
ना-रसाई अगर अपनी तक़दीर थी
तेरी उल्फ़त तो अपनी ही तदबीर थी
किस को शिकवा है गर शौक के सिलसिले
हिज्र की क़त्नगाहों से सब जा मिले
क़त्लगाहों से चुनकर हमारे अलम
और निकलेंगे उश्शाक़ के क़ाफिले
जिनकी राह-ए-तलब से हमारे क़दम
मुख़्तसर कर चले दर्द के फासिले
कर चले जिनकी ख़ातिर जहाँगीर हम
जाँ गवाँकर तेरी दिलबरी का भरम
हम जो तारीक राहों में मारे गए .. ।
तदबीर - योजना, युक्ति, नियोजन । हिज्र - विरह । अलम - ज्ञान । उश्शाक़ - आशिक़ (बहुवचन के अर्थ में) ।
मुख़्तसर - संक्षिप्त, छोटा ।