हम जो हैं / सुरेन्द्र रघुवंशी
हम जो गौण हैं
और मुख्यधारा का जल ही नहीं रहे कभी
बहते रहे जहाँ-तहाँ गली-कूचों में
हमारी इच्छाएँ विलीन होती रहेंगी यूँ ही
या छपेंगी समय के गाल पर
और आते रहेंगे उनके संस्करण अनवरत
या नामी न होने के कारण उपेक्षित मानते हुए निरन्तर
खारिज किए जाते रहेंगे लौह-सत्य
हम जो धूल-धूसरित और फटेहाल हैं
ठहर से गए समय के कोने-कुचारे में पड़े हैं हल बैल लिए हुए सहमे से भयभीत
अपने बंजर हो गए खेत में बादलों की ओर निहारते बार-बार
न्याय बरसेगा कभी
उम्मीदों की तपती धरती पर हरे सपनों को ज़िन्दा रखने के लिए ?
हम जो जन सीता हैं
अपने हिस्से का वनवास भोगते हुए भी
हुआ हमारा अपहरण
फिर एकान्त विरह और त्रासदीपूर्ण युद्ध में
विजय के पश्चात् भी देनी होंगी कितनी अग्नि-परीक्षाएँ अपनी पवित्रता के प्रमाण के लिए
देश को समृद्धि की सन्तान सौंपने के बाद भी
क्या अब भी करना होगा हमें
अपने लिए धरती फटने का इन्तज़ार
अपने समय की रफ़्तार में हमें शामिल करने के लिए
रुकेगा व्यवस्था का वाहन या सरपट दौड़ जाएगा
या हम ही ओझल हो जाएँगे समय की आँख से