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हम तक विचार / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
बस उबड़-खाबड़ एकपेरिया हम तक विचारों का
और घोर हुआ जा रहा खेत-भुक्खड़ किसानों की छाँट से
जगह-बे जगह सियार का मल
मख जाए तो फूल जाए पाँव
अगल-बगल अरहर की खूँटियाँ
सुना है अंग्रेज हाकिम खस पड़ा था इन पर
और और हाकिम हो गया था
इधर के तो नहीं ही वे
विचार लपकते जिनकी तरफ वायु वेग से
कभी हनुमान बनकर
कभी इलक्ट्रॉन सनकर
पहुँच जाते सीधे बड़ी आँत से सटसट
मेरे मुँह तो देसी ओल का कबकब
एक फाँक सोचूँ तो चाटूँ नींबू एक फाँक।