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हम तो बस रौशनी साथ लेकर चले / शैलेश ज़ैदी

हम तो बस रौशनी साथ लेकर चले।
क्या खता थी हमारी के पत्थर चले।।

ख़ुद ही चट्टानें देती रहीं रास्ते।
होके बेखौफ हम पर्वतों पर चले।।

पक्षियों को अंधेरे खटकने लगे।
शाम होते ही घबरा के सब घर चले।।

खादियों में छुपाकर विषैले बदन।
दंश अपना चुभोने ये विषधर चले।।

मय के प्यालों में था आदमी का लहू।
बज्म में वैसे कहने को सागर चले।।

निकले 'हर-हर-महादेव ' घर फूकने ।
जान लेनें को 'अल्ला-हो-अकबर' चले।।

धर्म क्या है किसी को पता तक न था।
धर्म के नाम पर फिर भी खंजर चले।।