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हम तो हैं चाकर / कुमार रवींद्र
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सुनो तथागत
पिछली बार आये थे जब तुम
पिड़कुल का जोड़ा रहता था इस चंपा पर
आम्रकुंज में भी
कोयल की कुहुक बसी थी तब
खिली चाँदनी भी वैसी ही थी
जैसी है अब
तुम विरक्त थे
तुम्हें न व्यापे मोह-प्रश्न थे
हम क्या करें - रहे हैं हम तो इच्छा के चाकर
बार-बार धरती पर हमने
सुख-दुख हैं झेले
होते वैरागी तो
कैसे लगते फिर साँसों के मेले
नदी-किनारे
देख रहे हो तुम बहता जल
और ले रहे हैं हम डुबकी जल के भीतर
हमने सिरजी जोत दिये की
जुगनू बीने
खेतों-खलिहानों में जूझे
बहे पसीने
बुद्ध-पूर्णिमा आज
मौन बैठे तुम भीतर
'शान्तं पापं' और हो रहे जल से बाहर