यह रोड़े-कंकड़-सा जो कुछ अटपटा सुनाते हैं
गीतों की इससे नई एक हम सड़क बनाते हैं ।
फिर सुविधाओं के रथ पर चढ़कर
आएँ आप मज़े से
फिर जय-जयकारों के मुखड़े हों
दोनों ओर सजे से
हम टायर के जूतों-से छीजे सम्वेदन पहने हैं
आक्रोशी मुद्रा-- तारकोल भी हमीं बिछाते हैं ।
हम हैं कविता के राजपथिक कब ?
हम तो अंत्यज हैं
स्वागत में रोज़ बिछा करते हैं
हम केवल रज हैं
लेकिन जितना भी डामर है इस पथ पर बिछा हुआ
खुद रक्त-स्वेद अपना ही इसमें रोज़ मिलाते हैं ।
हम जिन हाथों को किए हुए हैं
पीछे सकुचा कर
इनकी रिसती अँगुलियों ने ही
तोड़े हैं पत्थर
तुम तो बैठे हो मुक्त गद्य की मीनारों पर जाकर
पर झोंपड़ियों में छन्दों के हम दीप जलाते हैं ।