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हम नशीं ही उठ गये तो हम कहाँ रह जायेंगे / साग़र पालमपुरी

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हम नशीं ही उठ गये तो हम कहाँ रह जायेंगे

इस नगर में एक दिन ख़ाली मकाँ रह जायेंगे


इम्तियाज़—ए—आमद—ओ—मक़सूद ही मिट जायेगा

सजदावर कोई न होगा आस्ताँ रह जायेंगे


फूल खिलते थे ख़ुलूस—ओ—सिदक़ के जिसमें कभी

उन ज़मीनों को तरसते आस्माँ रह जायेंगे


गर यूँ ही होती रही अहल—ए—हवस में साज़िशें

वादियों में चंद उजड़े आशियाँ रह जायेंगे


लाख हो जाये उन्हें अपनी खता का ऐतराफ़

फ़ासिले फिर भी दिलों के दरमियाँ रह जायेंगे


दुश्मनों की चार सू इक भीड़ —सी होगी मगर

फिर भी उसमें कुछ हमारे मेह्रबाँ रह जायेंगे


हीर—राँझे की महब्बत याद आयेगी किसे

इश्क़ की राहों में ख़ाली इम्तेहाँ रह जायेंगे


मर के भी ‘साग़र’! न दुनिया भूल पायेगी हमें

आसमाँ में हम मिसाले कहकशाँ रह जायेंगे


ऐतराफ़=स्वीकृति