भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम ने कल तक जो दिल में ठानी थी / सफ़ी औरंगाबादी
Kavita Kosh से
हम ने कल तक जो दिल में ठानी थी
आज उन की वो सब ज़ुबानी थी
और माशुक़ भी थे दुनिया में
क्या तबीअत उन्हीं पे आनी थी
पच गई शैख़ ही को वरना शराब
तेज़ थी तुंद थी पुरानी थी
किस पे तुम कस रहे थे कल फ़िक़रे
और क्या मुझे से छेड़-खानी थी
दिल की हालत पे रंज होता है
उस की आई मुझी को आनी थी
हिज्र का दाग़ भी नहीं दिल में
ये भी इक आप की निशानी थी
न थी उल्फ़त कुछ ऐसी राज़ की बात
हाँ मगर आप से छुपानी थी
हम से मिलता ही क्या किसी का दिल
चार दिन की तो ज़िंदगानी थी
उन की दहलीज़ प किए सज्दे
हम को तक़्दीर आज़्मानी थी
ऐ ‘सफ़ी’ आशिक़ी में ये ज़िल्लत
तू ने कोई मुराद मानी थी