भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम ने कल तक जो दिल में ठानी थी / सफ़ी औरंगाबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम ने कल तक जो दिल में ठानी थी
आज उन की वो सब ज़ुबानी थी

और माशुक़ भी थे दुनिया में
क्या तबीअत उन्हीं पे आनी थी

पच गई शैख़ ही को वरना शराब
तेज़ थी तुंद थी पुरानी थी

किस पे तुम कस रहे थे कल फ़िक़रे
और क्या मुझे से छेड़-खानी थी

दिल की हालत पे रंज होता है
उस की आई मुझी को आनी थी

हिज्र का दाग़ भी नहीं दिल में
ये भी इक आप की निशानी थी

न थी उल्फ़त कुछ ऐसी राज़ की बात
हाँ मगर आप से छुपानी थी

हम से मिलता ही क्या किसी का दिल
चार दिन की तो ज़िंदगानी थी

उन की दहलीज़ प किए सज्दे
हम को तक़्दीर आज़्मानी थी

ऐ ‘सफ़ी’ आशिक़ी में ये ज़िल्लत
तू ने कोई मुराद मानी थी