भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम न काग़ज़ हैं न कोई सींक हैं / सर्वत एम जमाल
Kavita Kosh से
हम न काग़ज़ हैं न कोई सींक हैं
ऐ हवा हम इक नई तहरीक हैं
इंकलाबी जोश सब में है मगर
सबके चेहरे ख़ौफ़ से तारीक हैं
अब सफ़र के बाद कुछ अंजाम हो
पाँव के छाले अभी तो ठीक हैं
रोशनी, ताज़ा हवा, खुशियाँ, सुकून
यह हमारे हक़ नहीं हैं, भीख हैं
मछलियाँ कितनी भी हुशियारी करें
जाल भी अबके बहुत बारीक हैं
आप ख़ुश हैं, जानते हैं आजकल
आप किस इतिहास के नजदीक हैं