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हम बिना चीखे रह सकते नहीं / विनोद तिवारी
Kavita Kosh से
हम बिना चीखे रह नहीं सकते
दर्द कितना है कह नहीं सकते
बन गए हम भी घाट के पत्थर
साथ धारा के बह नहीं सकते
खण्डहर हो चले दुराग्रह भी
बूँदा-बाँदी से ढह नहीं सकते
हम भी बंदी हैं लाक्षागृह के
पर सरलता से दह नहीं सकते
वो जो दुख को बयान करते हैं
सोच दुख की वजह नहीं सकते
है बग़ावत की बू हवाओं में
लोग अब और सह नहीं सकते