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हम मरते ही नहीं, अमर हैं / लाखन सिंह भदौरिया
Kavita Kosh से
मरण-भीति, भव का प्रभाव है,
मृत्यु, अमरता का पड़ाव है,
साँसें चलती हुई डगर हैं।
हम अनादि के सहज नाद हैं,
अपनी भूली हुई याद हैं,
कोलाहल में, मौन मुखर हैं।
सागर, स्वेद, समेट भरा है,
खारापन इससे उभरा है,
जीवन भरे हुए, जलघर हैं।
उषा, सूक्त-से, ओत प्रोत हैं,
साम-गीत हैं, शान्ति स्रोत हैं,
युग प्रभात के प्रथम प्रहर हैं।
ओठ प्यास से पपराये हैं,
गागर फिर भी, भर लाये हैं,
बूँद प्यास के लिये लहर हैं।
हम मरते ही नहीं, अमर हैं।